।। नवरात्र ।।
|| प्रथम दिन ||
प्रथम दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप माता शैलपुत्री की पूजा होती हैं ।
|| ध्यान मंत्र || वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्। वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥ पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्। कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥
|| माता शैलपुत्री ||
माता शैलपुत्री को मातृ शक्ति यानी स्नेह,करूणा और ममता का स्वरूप मानकर किया जाता हैं ।
माता शैलपुत्री की पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों,दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों को भी आमंत्रित किया जाता है ।
प्रथम दिन "माँ शैलपुत्री" के रूप में भगवती माँ दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत,रोली, चंदन आदि से होती है ।
जो भक्त भक्ति भाव एवं श्रद्धा से माता शैलपुत्री की पूजा करते हैं।
उन्हें सुख, आरोग्य की प्राप्ति होती है,और किसी प्रकार का भय नहीं सताता है।
|| द्वितीय दिन ||
नवरात्र के दूसरे दिन माँ दुर्गा के दूसरे रूप माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा होती हैं।
॥ स्तुति मंत्र ॥ या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू। देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
|| माँ ब्रह्मचारिणी ||
माँ दुर्गा की नौ रुपों में से द्वितीय रूप माँ ब्रह्मचारिणी का है।
माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप,त्याग,वैराग्य,सदाचार,संयम की वृद्धि होती है।
माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा से उनके भक्तो को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है,तथा जीवन की अनेक समस्याओं एवं परेशानियों का नाश होता है।
ब्रह्म-चारिणी नाम का अर्थ है,( "ब्रह्म" -तपस्या और "चारिणी" - आचरण करने वाली। ) अर्थात तप का आचरण करने वाली ।
माँ ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण ज्योर्तिमय है।
माँ ब्रह्मचारिणी शांत और निमग्न होकर तप में लीन है।
मुख पर कठोर तपस्या के कारण अद्भुत तेज और कांति का ऐसा अनूठा संगम है,जो तीनों लोको को उजागर कर रहा है।
माँ ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में अक्ष माला है और बायें हाथ में कमण्डल होता हैं।
देवी ब्रह्मचारिणी साक्षात "ब्रह्म" का स्वरूप हैं,अर्थात तपस्या का मूर्तिमान रूप हैं।
इस दिन साधक का मन "स्वाधिष्ठान चक्र" में स्थित होता है,और साधक की कुण्डलनी शक्ति जागृत हो जाती है।
इस चक्र में अवस्थित साधक माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा और भक्ति को प्राप्त करता है।
|| तीसरा दिन ||
माँ दुर्गा के नौ रुपों में से तीसरा रूप माँ चंद्रघंटा है।
नवरात्र के तीसरे दिन माँ दुर्गा के तृतीय रूप माँ चंद्रघंटा की पूजा होती है।
|| स्तुति मंत्र || या देवी सर्वभूतेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता। प्रसादं तनुते महयं चन्द्रघण्टेति विश्रुता।।
|| माँ चंद्रघंटा ||
माँ चंद्रघंटा का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय है।
चेहरा शांत एवं सौम्य है,और मुख पर सूर्यमंडल की आभा छिटक रही होतीहै।
माँ के सिर पर अर्ध चंद्रमा मंदिर के घंटे के आकार में सुशोभित हो रहा है।
जिसके कारण माता का नाम माँ "चन्द्रघंटा" हो गया है।
अपने इस रूप से माता देवगण, संतों एवं भक्त जन के मन को संतोष एवं प्रसन्नता प्रदान करती है।
माँ चन्द्रघंटा अपने प्रिय वाहन सिंह पर आरूढ़ होकर अपने दस हाथों में खड्ग, तलवार, ढाल, गदा, पाश, त्रिशूल, चक्र,धनुष, भरे हुए तरकश लिए मंद-मंद मुस्कुरा रही होती है।
माँ के भक्त के शरीर से अदृश्य उर्जा का विकिरण होता रहता है, जिससे वह जहां भी होते हैं,वहां का वातावरण पवित्र और शुद्ध हो जाता है।
माँ का ऐसा अदभुत रूप देखकर ऋषिगण मुग्ध होते हैं,और वेद मंत्रों द्वारा
माता चन्द्रघंटा की स्तुति करते है।
माँ चंद्रघंटा की मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं,
इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है।
माँ चन्द्रघंटा के घंटे की ध्वनि सदैव भक्तों की प्रेत-बाधा आदि से रक्षा करती है तथा उस स्थान से भूत, प्रेत एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है।
माँ चन्द्रघंटा की कृपा से समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती है।
माँ चन्द्रघंटा की भक्ति से आध्यात्मिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त होती है।
जो व्यक्ति माँ चंद्रघंटा की श्रद्धा एवं भक्ति भाव सहित पूजा करताहै,उसे माँ की कृपा प्राप्त होती है, जिससे वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त करता है।
माँ चंद्रघंटा भक्त को सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली है।
माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक एवं दिव्य सुगंधित वस्तुओं के दर्शन तथा अनुभव होते है।
|| चौथा दिन ||
माँ दुर्गा नौ रुपों में से चौथा रूप है,माँ कूष्माण्डा का।
नवरात्र के चौथे दिन माँ कूष्माण्डा की पूजा की जाती है।
|| स्तुति मंत्र || या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
|| माँ कूष्माण्डा ||
माँ कूष्माण्डा अपनी मन्द मुस्कान से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न
करने के कारण इन्हें माँ कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है।
संस्कृत भाषा में "कूष्माण्डा", "कूम्हडे" को कहा जाता है,"कूम्हडे" की
बलि इन्हें प्रिय है,इस कारण भी इन्हें माँ कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है।
माँ कूष्मांडा का नाम का अर्थ है, वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है, वह "कूष्माण्डा" माँ है।
माँ कूष्माण्डा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री है।
जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी उस समय अंधकार का साम्राज्य था
माँ कूष्मांडा जिनका मुखमंड सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है, उस समय प्रकट हुई उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी है।
और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्मण्ड का जन्म हुआ है।
माँ कूष्मांडा का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है।
यह सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती है।
माँ कूष्मांडा अष्टभुजा से युक्त हैं,अत: इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है।
माँ अपने इन हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण,कमल का फूल,अमृत से भरा कलश,चक्र तथा गदा है।
माँ के आठवें हाथ में बिजरंके (कमल फूल का बीज) का माला है,यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धि देने वाला है।
माँ कूष्मांडा अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार रहती है।जो भक्त श्रद्धा पूर्वक माँ कूष्मांडा की उपासना करता है।
उसके सभीप्रकार के कष्ट रोग,शोक का अंत होता है,और आयु एवं यश की प्राप्ति होतीहै।
वह भक्त सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है,और माँ का अनुग्रह प्राप्त करता है। एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है।
माँ दुर्गा के नौ रुपों में पंचम रूप है,माँ स्कंदमाता का।
नवरात्र के पांचवे दिन माँ स्कंदमाता की पूजा की जाती है।
|| स्तुति मंत्र || सिंहासना गता नित्यं पद्माश्रि तकरद्वया । शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ।।
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
|| माँ स्कंदमाता ||
माँ स्कन्दमाता ही हिमालय की पुत्री पार्वती है।
इन्हें ही माहेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है।
माँ पर्वत राज की पुत्री होने से पार्वती कहलाती है।
महादेव की पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती है।
माँ का यह रूप शुभ्र अर्थात श्वेत है।
माँ अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती है।
माँ को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है ,अत: माँ को अपने पुत्र के नाम के साथ
संबोधित किया जाना अच्छा लगता है।
जो भक्त माँ के इस स्वरूप की पूजा करते है।
उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती है।
जब अत्याचारी दानवों का अत्याचार बढ़ता है,तब माता संत जनों की रक्षा के
लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का अंत करती है।
माँ स्कन्दमाता की चार भुजाएं हैं,माँ अपने दो हाथों में कमल का फूल
धारण करती हैं,और एक भुजा में "भगवान स्कन्द या कुमार कार्तिकेय" को
सहारा देकर अपनी गोद में लिये बैठी है।
माँ का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे है।
माँ कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं,इसी से इन्हें "पद्मासना की देवी"
और "विद्यावाहिनी माँ दुर्गा देवी" भी कहा जाता है।
माँ स्कंदमाता का वाहन सिंह है।
माँ स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं।
इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है ।
यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है।
एकाग्रभाव से मन को पवित्र करके माँ की स्तुति करने से दुःखों से मुक्ति
पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है|
जो भक्त माँ स्कन्द माता की भक्ति-भाव सहित पूजन करते हैं।
उन्हें माँ की कृपा प्राप्त होती है। माँ की कृपा से भक्तों की मुराद पूरी होती है,और घर में सुख,शांति एवं समृद्धि रहती है।
वात, पित्त, कफ जैसी बीमारियों से पीड़ित भक्त को माँ स्कंदमाता की पूजाकरनी चाहिए। माँ को तुलसी चढ़ाकर प्रसाद में रूप में ग्रहण करना चाहिए।
|| छठे दिन ||
माँ दुर्गा के नौ रुपों में से छटा रूप है,माता कात्यायनी का।
नवरात्र के छठे दिन माता कात्यायनी की पूजा की जाती है।
|| स्तुति मंत्र || चन्द्रहासोज्जवलकरा शाईलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।
या देवी सर्वभूतेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
|| माता कात्यायनी ||
माँ दुर्गा के छठे रूप को माँ कात्यायनी के नाम से पूजा जाता है।
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है।
यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं।
माँ कात्यायनी का एक हाथ अभय मुद्रा में है,तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है।
अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का फूल है।
माता कात्यायनी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा प्रचलित है,जिसके अनुसार
एक समय " कात्" नाम के प्रसिद्ध ॠषि थें,उनके पुत्र ॠषि "कात्य" थें ।
उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध कात्य गोत्र से, विश्वप्रसिद्ध ॠषि "कात्यायन'
उत्पन्न हुए थे।
महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके
यहां "अश्विन कृष्ण चतुर्दशी" को पुत्री के रूप में माता ने जन्म लिया था।
महर्षि कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया था।
महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण माँ दुर्गा के इस रूप को माँ कात्यायनी कहा गया।
जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था।
तब उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा,विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज़ और प्रताप का अंश माँ कात्यायनी को दिया था।
शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी,तीन दिनों तक कात्यायन ॠषि ने माँ की पूजा की,दशमी को माँ कात्यायनी ने महिषासुर का वध किया ओर देवों को महिषासुर के अत्याचारों से मुक्त किया था।
माँ कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं,इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है। माँ कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं।
माँ कात्यायनी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है।
जो भक्त भक्ति भाव एवं श्रद्धा से माँ कात्यायनी की पूजा करते हैं। उन्हें सुख, आरोग्य की प्राप्ति होती है,और किसी प्रकार का भय नहीं सताताहै।
माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ, कर्म,काम,मोक्ष की प्राप्तिहो जाती है। माँ की कृपा से भक्त की मुराद पूरी होती है,और घर में सुख, शांति एवं समृद्धि रहती है।
|| सातवें दिन ||
माँ दुर्गा के नौ रुपों में सातवाँ रूप है,माँ कालरात्रि का।
नवरात्र के सातवें दिन माँ कालरात्रि की पूजा की जाती है।
|| स्तुति मंत्र ||
या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
एक वेधी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकणी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।।
वामपदोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी।।
|| माँ कालरात्रि ||
जब माँ आदिशक्ति ने इस सृष्टि का निर्माण शुरू किया था। ब्रह्मा,विष्णु एवं महेश का प्रकटीकरण हुआ था।
उससे पहले माँ आदिशक्ति ने अपने स्वरूप से तीन महादेवीयों को उत्पन्न किया था। माँ महालक्ष्मी ने ब्रह्माण्ड को अंधकारमय और तामसी गुणों से भरा हुआ देखकर सबसे पहले तमसी रूप में जिस देवी को उत्पन्न किया था।
वह देवी ही माँ कालरात्रि थी। माँ कालरात्रि अपने गुण और कर्मों द्वारा महामाया,महामारी, महाकाली,क्षुधा,तृषा, निद्रा, तृष्णा,एकवीरा एवं दुरत्यया कहलाती हैं।
माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक हैं। इनका वर्ण अंधकार की भाँति काला है,जो अमावश की रात्रि से भी अधिक काला हैं।
माँ कालरात्रि का वर्ण काला होने पर भी कांतिमय और अद्भुत दिखाई देता हैं।
माँ कालरात्रि के केश बिखरे हुए हैं,और हवाओं में लहरतें रहतें है।
कंठ में विद्युत की चमक वाली माला हैं। माँ कालरात्रि के तीन नेत्र ब्रह्माण्ड की तरह विशाल व गोल हैं।
जिनमें से बिजली की भाँति किरणें निकलती रहती हैं।
इनकी नासिका से श्वास तथा निःश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं। माँ कालरात्रि के तीन बड़े बड़े उभरे हुए नेत्र हैं जिनसे माँ अपने भक्तों पर अनुकम्पा की दृष्टि रखती हैं।
माँ की चार भुजाएं हैं,दायीं ओर की उपरी भुजा से महामाया भक्तों को वरदान दे रही हैं। नीचे की भुजा से अभय का आशीर्वाद प्रदान कर रही है।
माँ ने बायीं भुजा में क्रमश: तलवार और खड्ग धारण किया है। माँ कालरात्रि गर्दभ पर सवार हैं।
माँ का यह भय उत्पन्न करने वाला रूप केवल पापियों का नाश करने के लिए हैं। माँ कालरात्रि ही महामाया हैं,इन्होंने ही सृष्टि को एक दूसरे से जोड़ रखा हैं।
माँ कालरात्रि का यह विचित्र रूप भक्तों के लिए अत्यंत शुभ हैं। माँ कालरात्रि अपने भक्तों को सदैव शुभ फल प्रदान करने वाली होती हैं।
इस कारण इन्हें "शुभंकरी" भी कहा जाता हैं।
यह दिन तांत्रिक क्रिया की साधना करने वाले भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण होता है,रात्रि में विशेष विधान के साथ माँ कालरात्रि की पूजा की जाती हैं।
जो भक्त भक्ति भाव एवं श्रद्धा से माँ कालरात्रि की पूजा करते हैं। उन्हें सुख,आरोग्य की प्राप्ति होती है,और किसी प्रकार का भय नहीं सताता है।
||आठवाँ दिन || माँ दुर्गा के नौ रुपों में आठवीं रूप है,माँ महागौरी का। नवरात्र के आठवें दिन माँ महागौरी की पूजा की जाती है।
|| स्तुति मंत्र || श्वेते वृषे समरूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः। महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
या देवी सर्वभूतेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
|| माँ महागौरी || माँ महागौरी की चार भुजाएं हैं,उनकी दायीं भुजा अभय मुद्रा में है। और नीचे वाली भुजा में त्रिशूल शोभता है।
बायीं भुजा में डमरू डम डम बज रही है और नीचे वाली भुजा से देवी गौरी भक्तों की प्रार्थना सुनकर वरदान देतीहैं।
माँ महागौरी आदी शक्ति हैं, इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है,इनकी शक्ति अमोघ फलदायिनी है।
उन्हें "महागौरी" क्यों कहा जाता है ?
|| प्रथम कथा ||
माँ महागौरी ने ही देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी।
एक बार भगवान भोलेनाथ ने माँ पार्वती को देखकर कुछ कह दिया था । जिससे माँ पार्वती के मन को कष्ट होता है,और माँ पार्वती तपस्या में लीन हो गई।
इस प्रकार वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब माँ पार्वती नहीं आती है,तो माँ पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँचते हैं।
वहाँ भगवान शिव पहुंचकर, माँ पार्वती को देखतें हैं,और देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। माँ पार्वती का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है,उनकी छटा चांदनी के समान श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है।
उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर भगवान शिव देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं ।
|| द्रितिय कथा ||
माँ पार्वती ने भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या किया था। जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है,देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव इन्हें स्वीकार करते हैं ।
भगवान शिव इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं,तब माँ विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम माँ गौरी पड़ा ।
माँ गौरी का वाहन सिंह क्यों है ?
|| कथा ||
एक सिंह काफी भूखा था। भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां माँ पार्वती तपस्या कर रही होती हैं ।
माँ पार्वती को देखकर सिंह की भूख बढ़ जाती है,और वह माँ पार्वती के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ जाता हैं।
इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो जाता हैं। माँ पार्वती जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है।
और देवी माँ उसे अपना वाहन बना लेती है । क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या किया था ।
इसलिए माँ गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं । माँ महागौरी की अराधना से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं ।
माँ महागौरी का भक्त जीवन में पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी बनता है।
जो स्त्री माँ महागौरी की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं,उनके सुहाग की रक्षा माँ स्वयं करती हैं। जो कुंवारी लड़की माँ महागौरी की पूजा करती हैं,तो उसे योग्य पति प्राप्त होता है।
जो पुरूष माँ महागौरी की पूजा करते हैं,उनका जीवन सुखमय रहता है । माँ महागौरी उनके पापों को जला देती हैं,और शुद्ध अंत:करण देती हैं।
माँ अपने भक्तों को अक्षय आनंद और तेज प्रदान करती हैं। नवरात्रि के दसों दिन कुवारी कन्या भोजन कराने का विधान हैं।
परंतु अष्टमी के दिन का विशेष महत्व है। इस दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए,माँ महागौरी को चुनरी भेंट करती हैं।
|| नौवाँ दिन||
माँ दुर्गा के नौ रुपों में नौवाँ रूप है,माँ सिद्धिदात्री का नवरात्र के नौवें दिन माँ सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है।
|| स्तुति मंत्र ||
या देवी सर्वभूतेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।
|| माँ सिद्धिदात्री || माँ सिद्धिदात्री का रूप अत्यंत सौम्य है,माँ की चार भुजाएं हैं। दायीं भुजा में माता ने चक्र और गदा धारण किया है,बांयी भुजा में शंख और कमल का फूल है।
माँ सिद्धिदात्री कमल के आसन पर विराजमान रहती है। माँ की सवारी सिंह है।
देवी माँ ने माँ सिद्धिदात्री का यह रूप भक्तों पर अनुकम्पा बरसाने के लिए धारण किया है। देवतागण, ऋषि-मुनि, असुर, नाग,मनुष्य सभी माँ के भक्त है।
माँ सिद्धिदात्री की भक्ति जो भी हृदय से करता है,माँ उसी पर अपना स्नेह लुटाती है। पुराण के अनुसार भगवान शिव ने माँ सिद्धिदात्री की कृपा से सिध्दियों को प्राप्त किया था।
तथा माँ सिद्धिदात्री के द्वारा भगवान शिव को अर्धनारीश्वर रूप प्राप्त हुआ था। अणिमा, महिमा,गरिमा, लघिमा, प्राप्ति,प्राकाम्य,ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियां माँ सिद्धिदात्री के है। जिनका पुराण में उल्लेख किया गया है।

No comments:
New comments are not allowed.